रिक्शाचालक पिता के थके कंधों को देख गोविंद जायसवाल ने जिद पाली, कलक्टर ही बनना है और पहले ही प्रयास में बन गए

कहते हैं जब हौंसलों में जान हो तो कोई ताकत नहीं होती जो आंखों में पल रहे ख्वाब को मिटा सके। हौंसलें ही वह ताकत हैं कि रास्ते छोटे पड़ते चले जाते हैं और मंजिल खुद-ब-खुद कदमों में चली आती है। आज ऐसे ही एक जज्बे की हकीकत का नाम है आईएएस गोविंद जायसवाल। आईएएस बनने के ख्वाब पालने वाले गोविंद जायसवाल ने इसके अलावा कोई और ख्वाब देखा ही नहीं। वाराणसी की सड़को पर रिक्शाचालक पिता का यह बेटा अपने पिता के थके कंधों को देखकर कभी थका नहीं बल्कि उस थकान को ही अपने सपनों की ताकत बना लिया और वर्ष 2007 में महज 23 वर्ष की उम्र आयु में ही अपने पहले ही प्रयास में प्रतिष्ठित भारतीय प्रशासनिक सेवा में पूरे देशभर मंे 48वीं रैंक लाकर अपने पिता के थकते कंधों को दुनिया के सबसे ताकतवर पिता के कंधें बना दिया।

ख्वाब छोड़ा नहीं, शौक कोई पाला नहीं –

रिक्शाचालक पिता के बेटे गोविंद जायसवाल के सिर से मां का साया जब बचपन में ही उठ गया तो परिवार की सारी जिम्मेदारी पिता के कंधों पर आ गई। तीन बहिनों समेत गोविंद की पढ़ाई और खर्च एक रिक्शें की आमदनी के भरोसे एक पिता के लिए आसान काम नहीं था। गोविंद जायसवाल ने इस हकीकत को खूब जाना लेकिन कभी अपने हौंसलों को कमजोर नहीं होने दिया। ये बात अलग है कि इसके लिए इन्होंने कोई शौक नहीं पाला। कोचिंग क्लास जाने से पहले अपनी उस एक शर्ट को खुद ही धोते और फिर सूखने पर उसे ही पहन कर चले जाते। .

बीमार पिता को रिक्शा खींचते देखा तो ठाना कामयाब सिर्फ कामयाब होना है –

चार भाई-बहिनों की पढ़ाई और खर्च का पूरा जिम्मा उनके पिता पर था। मौसम चाहे जो रहा हो पिता को बस काम करते ही देखते। एक दिन पिता को तेज बेखार था और घर में खाने को कुछ नहीं। पिता अपने बच्चों की खातिर तेज बुखार में काम के लिए रिक्शा लेकर चल पड़े। यह सब देख गोविंद जायसवाल की पलके गीली हो गई। बस उसी समय ये ठान लेते हैं कि अब सिर्फ कामयाब और कामयाब होना है।

दिनचर्या थी कठोर तपस्या जैसी –

सुबह 6 बजे उठना। 7 से 12 बजे तक पढ़ाई करना। 1 से 5 तक पढ़ाई करना तो शाम 6 से 8 बजे तक बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना। रात 9 से 1 बजे तक फिर पढ़ाई करना।


युवाओं को प्रेरणास्वरूप संदेश –

यह खामोश मिजाज जिंदगी जीने नहीं देगी,
इस दौर में जीना है तो कोहराम मचा ड़ालों

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