निदा फाजली साहब का एक शेर है कि “हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी जिस को भी देखना हो कई बार देखना.” ये लाइनें
हिंदूवादी राजनेता, अर्थशास्त्र के विद्वान, प्रखर वक्ता और वरिष्ठ बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी पर फिट बैठती हैं क्योंकि उनका व्यक्तित्व इतना ही विराट है कि उसको किसी एक तरह से नहीं समझा जा सकता. वह 15 सितंबर को 84 साल के हो गए. वह देश के अनोखे ऐसे राजनेता हैं जो जब दोस्ती निभाते हैं तो जमकर निभाते हैं और जब दुश्मन बनते हैं तो दुश्मनी निभाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते. यही वजह है कि गांधी परिवार के बेहद करीबी रहे सुब्रमण्यम स्वामी ने आज राहुल और सोनिया गांधी की नाक में दम किया हुआ है और उनको विभिन्न मामलों में कोर्ट में घसीटते रहते हैं.
सुब्रमण्यम स्वामी का जन्म 15 सितंबर 1939 को चेन्नई, तमिलनाडु में हुआ. स्वामी जनहित के मामलों पर अपने रुख को लेकर बेबाकी से बोलने के लिए जाने जाते हैं. उन्हें हिंदी, अंग्रेजी तमिल, तेलगु और चीनी समेत कई भाषाओं में महारत हासिल है. स्वामी की विदेश नीति पर काफी मजबूत पकड़ है और उन्हें चीनी अर्थव्यवस्था और खासकर भारत और चीन के तुलनात्मक विश्लेषण के विशेषज्ञ के तौर पर जाना जाता है. उन्होंने “चीन और भारत में आर्थिक विकास, 1952-70: एक तुलनात्मक मूल्यांकन” नामक पुस्तक भी लिखी है.
कभी बनना चाहते थे गणितज्ञ
स्वामी के पिता सीताराम सुब्रमण्यम जाने माने गणितज्ञ थे. वे एक समय में केंद्रीय सांख्यिकी इंस्टीच्यूट के डायरेक्टर थे. पिता की तरह ही स्वामी भी गणितज्ञ बनना चाहते थे. उन्होंने हिंदू कॉलेज से गणित में स्नातक की डिग्री ली. इसके बाद से भारतीय सांख्यिकी इंस्टीच्यूट, कोलकाता पढ़ने गए. स्वामी के जीवन का विद्रोही गुण पहली बार कोलकाता में ही ज़ाहिर हुआ था. उस वक्त भारतीय सांख्यिकी इंस्टीच्यूट, कोलकाता के डायरेक्टर पीसी महालानोबिस थे, जो स्वामी के पिता के प्रतिद्वंद्वी थे. लिहाजा उन्होंने स्वामी को ख़राब ग्रेड देना शुरू किया. स्वामी ने 1963 में एक शोध पत्र लिखकर बताया कि महालानोबिस की सांख्यिकी गणना का तरीका मौलिक नहीं है, बल्कि यह पुराने तरीके पर ही आधारित है.
24 की उम्र में ही हार्वर्ड से कर ली थी पीएचडी
सुब्रमण्यम स्वामी ने महज 24 की उम्र में ही हार्वर्ड से पीएचडी कर ली थी और इसके बाद 27 की उम्र में हार्वर्ड में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए. डॉक्टर स्वामी को 1968 में अमृत्य सेन ने दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में पढ़ाने का आमंत्रण दिया. स्वामी दिल्ली आए और 1969 में आईआईटी दिल्ली से जुड़ गए लेकिन 1972 में उन्हें आईआईटी दिल्ली की नौकरी गंवानी पड़ी. इसके खिलाफ वो अदालत चले गए और 1991 में अदालत का फैसला स्वामी के पक्ष में आया. इसके बाद वो एक दिन के लिए आईआईटी गए और फिर इस्तीफा दे दिया.
मुस्लिमों के खिलाफ कर डाली थी ये मांग
सुब्रमण्यम स्वामी को प्रखर हिंदूवादी राजनेता के तौर पर देखा जाता है. उन्होंने मुसलमानों को तब तक मतदान के अधिकार से वंचित करने का प्रस्ताव रखा था, जब तक कि वे “हिंदू विरासत” को मान्यता नहीं देते. उनके इस बयान के बाद हार्वर्ड कॉलेज ने स्वामी द्वारा पढ़ाए गए दो ग्रीष्मकालीन अर्थशास्त्र पाठ्यक्रमों को अपने पाठ्यक्रम से हटा दिया था. स्वामी का शोधपत्र 1974 में पॉल सैमुएलसन के साथ सूचकांक संख्याओं के सिद्धांत पर आधारित प्रकाशित हुआ था, जो आर्थिक विज्ञान में नोबेल मेमोरियल पुरस्कार जीतने वाले अमेरिकी विद्वान थे.
पहले राजीव के दोस्त बने, फिर गांधी परिवार से जमकर निभाई दुश्मनी
सुब्रमण्यम स्वामी प्रधानमंत्री राजीव गांधी के काफी करीबी दोस्त थे. बोफोर्स कांड के दौरान उन्होंने सदन में सार्वजनिक तौर पर ये कहा था कि राजीव गांधी ने कोई पैसा नहीं लिया है. लेकिन बाद में उनकी गांधी परिवार से बनी नहीं और फिर उन्होंने इस परिवार से जमकर दुश्मनी निभाई. स्वामी कई वर्षों से अकेले गांधी परिवार से भिड़े हुए हैं. वह नेशनल हेराल्ड समेत कई मामलों में सोनिया और राहुल गांधी को अदालत में घसीट चुके हैं.
जब सिख बनकर संसद में पहुंचे थे स्वामी
जब आपातकाल के समय सुब्रमण्यम स्वामी पर गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ तो वह अमेरिका चले गए थे. लेकिन वापस आने के बाद वह सिख वेश में संसद की सुरक्षा और पुलिस को चकमा देते हुए राज्यसभा पहुंच गए. 10 अगस्त, 1976 को जब वह सदन में पहुंचे तो दिवंगत सांसदों को श्रद्धांजलि दी जा रही थी और एक-एक कर उनके नाम पढ़े जा रहे थे. जैसे ही लिस्ट पूरी हुई सुब्रमण्यम स्वामी ने चिल्लाकर कहा, आपने लोकतंत्र का नाम नहीं लिया, उसकी भी मौत हो चुकी है. सदन में निस्तब्धता पसर गई. इससे पहले कि सुरक्षाकर्मी उन्हें पकड़ने की कोशिश करते, वह संसद से बाहर निकल गए. सुब्रमण्यम स्वामी नेपाल के रास्ते फिर से अमेरिका चले गए और इमरजेंसी के दौरान कभी भी पुलिस की पकड़ में नहीं आए.